Monday, December 27, 2010

पुणे के किसान की सफलता की कहानी - अभिनव फार्मर्स क्लब

Source : http://www.rediff.com/business/slide-show/slide-show-1-the-rags-to-riches-story-of-a-farmer/20101227.htm

Dnyaneshwar Nivrutti Bodke with his wife at his farm in Hinjewadi.

Some 20-odd kilometres off the Pune-Mumbai road, near Baner, a fork to the left goes to Hinjewadi. Just five years ago, the landscape was lush with green fields that produced rice, jowar, bajra, sugarcane amongst other crops.
Off late, Hinjewadi has become famous as an information technology hub that houses the creme de la creme of technology companies, Indian and multinational.
Infosys, Wipro, Cognizant, Tata Technologies, Veritas Software Corporation . . . the list goes on.
While the service sector is fast replacing agriculture as the major employment provider in Hinjewadi, some patches of green still dot the concrete arena.
About three kilometres off this arena, on the same road that cuts off the Pune-Mumbai road, there is a small bungalow owned by a 40-year-old farmer, who had to fight the Maharashtra government so that he and his fellow farmers could continue to grow vegetables.
Dnyaneshwar Nivrutti Bodke is a farmer who hates subsidies and loan waivers. He also keeps off politicians and their promise of freebies.
The only time he availed of the state largesse was to repay his first ever loan.

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http://www.rediff.com/business/slide-show/slide-show-1-the-rags-to-riches-story-of-a-farmer/20101227.htm

Friday, December 17, 2010

सामूहिक निर्णय प्रक्रिया से बदली तस्वीर

Source : http://www.chauthiduniya.com/2010/12/samuhik-nirnayi-prakriya-se-badali-tasvir.html

राज्य कभी नहीं चाहता कि समाज एकजुट, मज़बूत और आर्थिक रूप से संपन्न हो. वह हमेशा चाहता है कि समाज बंटा रहे, टूटा रहे, इस पर आश्रित रहे और गुलाम मानसिकता में जीना सीख ले. यहां तक कि गुलामी के दिनों में भी समाज के मामलों में राज्य का इतना हस्तक्षेप नहीं था, जितना स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक भारत में बढ़ता चला गया. अब तो समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया गया है और राज्य ही समाज का स्थान लेता हुआ दिख रहा है. इसका समाधान इस रूप में देखा गया कि लोकतंत्र को लोक स्वराज की तऱफ मोड़ा जाए. मसलन गांवों में लोक स्वराज का प्रयोग किया जाए. लोक और तंत्र के बीच की दूरी को कम किया जाए. संविधान द्वारा तंत्र संरक्षक की भूमिका में स्थापित है, जबकि इसे प्रबंधक की भूमिका में होना चाहिए था. लोक और तंत्र के बीच बढ़ती हुई इसी दूरी को कम करने का काम देश के कुछ हिस्सों में चल रहा है. ऐसा ही एक गांव है गोपालपुरा. राजस्थान के चुरू ज़िले के सुजानगढ़ के रेगिस्तान में गोपालपुरा गांव विकास की नई कहानी लिख रहा है. 2005 में हुए पंचायत चुनाव में गोपालपुरा पंचायत के तहत आने वाले तीन मजरों- गोपालपुरा, सुरवास एवं डूंगर घाटी के लोगों ने सविता राठी को सरपंच चुना. वकालत की पढ़ाई कर चुकीं सविता राठी ने लोगों के साथ मिलकर गांव के विकास का नारा दिया था. सरपंच बनने के बाद सविता ने सबसे पहला काम ग्रामसभा की नियमित बैठकें बुलाने का किया. एक पिछड़े और ग़रीब गांव के विकास के लिए पांच साल कोई बहुत लंबा समय नहीं होता, लेकिन ग्रामसभा की बैठकें होने से गांव के लोगों में विश्वास जागा कि उनके गांव की स्थिति भी बेहतर हो सकती है.
तीन गांवों को मिलाकर यह पंचायत बनी. गोपालपुरा, सुरवास और डूंगर घाटी. गोपालपुरा में करीब 800 परिवार हैं. सुरवास में 150 और डूंगर घाटी अलग गांव नहीं है, अलग से बस्ती है और इसमें भी 150 परिवार हैं. कुल मिलाकर 6000 की आबादी. ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से हैं. यहां पंचायत का हर काम ग्रामसभा की खुली बैठक में तय होता है.
गांव में अब हर तऱफ सफाई रहने लगी है. विकास के काम का पैसा गांव के विकास में लग रहा है. ग़रीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ उन लोगों तक पहुंचने लगा है, जो सबसे ग़रीब हैं. दीवारों पर शिक्षा और पानी को लेकर नारे हर तऱफ दिखते हैं, जो ख़ुद गांव वालों ने लिखे हैं, वह भी बेहद सरल भाषा में. जैसे पानी बचाने के लिए लिखा है, जल नहीं तो कल नहीं. गोपालपुरा पंचायत का नाम आज देश भर में इसलिए जाना जाता है कि वहां की सरपंच सबको साथ लेकर फैसले लेती हैं.
तीन गांवों को मिलाकर यह पंचायत बनी. गोपालपुरा, सुरवास और डूंगर घाटी. गोपालपुरा में क़रीब 800 परिवार हैं. सुरवास में 150 और डूंगर घाटी अलग गांव नहीं है, अलग से बस्ती है और इसमें भी 150 परिवार हैं. कुल मिलाकर 6000 की आबादी. ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से हैं. यहां पंचायत का हर काम ग्रामसभा की खुली बैठक में तय होता है. ग्रामसभा में फैसले होने के चलते लोग ऐसे-ऐसे फैसले भी मान लेते हैं, जो सामान्यत: अगर अफसरों या नेताओं द्वारा लिए जाएं तो कभी न माने जाएं. इसमें सबसे अहम रहा पानी बेचने का फैसला. सरपंच के साथ गांव वालों ने लगकर पानी की कमी पूरी की. पानी के स्रोत ठीक किए गए. तालाबों में पानी बढ़ गया. ज़मीन के नीचे का पानी भी ऊपर उठ आया. इसके बाद पानी का व्यापार शुरू हो गया. राजस्थान में पानी की कमी रहती है. कुछ लोगों ने गांव के तालाबों का पानी टैंकरों में बाहर ले जाकर बेचने का धंधा शुरू कर दिया. इसमें गांव के भी कुछ लोग शामिल थे, लेकिन ग्रामसभा में जब यह मुद्दा उठा तो तय हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी का स्तर ऊपर आया है और गांव का पानी इस तरह बेचा नहीं जाना चाहिए. ग्रामसभा में निर्णय लेकर तालाबों के चारों तऱफ चहारदीवारी बनवाई गई और गेट लगाकर ताले जड़ दिए गए. अब गांव में टैंकर से कोई पानी नहीं उठाता.
हमारे गांव में हम ही सरकार हैं. अपने विकास के लिए पैसा तो हम सरकार से ही लेंगे, लेकिन इन पैसों का इस्तेमाल कहां और कैसे करना है, यह हम ख़ुद तय करेंगे. यानी गांव के लोग ख़ुद तय करेंगे कि विकास कैसे और कहां किया जाना है. राजस्थान के चुरू ज़िले की गोपालपुरा पंचायत की पूर्व सरपंच जब यह बात कहती हैं तो सहसा गांधी का ग्राम स्वराज याद आता है. ऐसा आभास होता है कि गांधी का सपना इस गांव में मूर्त रूप ले रहा है. इस पंचायत ने एक मत से सामूहिक निर्णय लेने की जिस प्रक्रिया का विकास किया है, वह अद्भुत है. यहां की सफलता देश की बाक़ी पंचायतों को आईना दिखाती है. एक संदेश देती है कि आम आदमी की ताक़त के आगे सारी ताक़तें बौनी हैं.
गांव में आपस में ख़ूब झगड़े थे. आएदिन लोग एक-दूसरे के  ख़िला़फ एफआईआर कराते रहते थे. महीने में एक-दो मामले दर्ज होना सामान्य बात थी. धीरे-धीरे जब ग्रामसभा की बैठकें होने लगीं तो यह मुद्दा भी उठा और आश्चर्यजनक रूप से लोगों के मतभेद कम होते चले गए. गांव में लोग कचरा इधर-उधर फैलाते थे. निर्मल ग्राम योजना का भी कोई फायदा नहीं हो रहा था. तब ग्रामसभा की बैठक में स्वच्छता की ज़रूरत पर भी चर्चा हुई और सब लोगों ने मिलकर कचरा निस्तारण की व्यवस्था की. गांव में राशन की चोरी बंद हो गई है. पटवारी, आशा बहनों एवं आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं आदि सबका ग्रामसभा की बैठक में आना ज़रूरी है. पंचायत भवन में एक रजिस्टर रखा है. अगर किसी को कोई शिक़ायत होती है तो वह उसे इस पर लिख जाता है. पंचायत इस पर कार्रवाई करती है. ज़रूरत पड़ने पर अगली बैठक में भी इस पर चर्चा होती है. गांव में गाय फसल न चर जाएं, इसलिए फसल के दौरान साझा गौचर का काम चलाया जाता है और खेती की रक्षा होती है. इसके लिए किसानों से 5 रुपये से 7 रुपये प्रति बीघा लिया जाता है, जिससे गांव की गायों के चारे की व्यवस्था की जाती है.
सरकार की तऱफ से तय समय पर निश्चित बैठकें तो होती ही हैं, इसके अलावा जब भी कभी पूरे गांव का कोई मसला होता है तो ग्रामसभा की बैठक बुलाई जाती है और उस मसले को हल किया जाता है. औसतन महीने में एक बैठक ग्रामसभा की होती ही है और हर बैठक में लगभग 100-200 लोग आते हैं. शुरू में तो  प्रभावशाली और दलाल किस्म के लोग सोचते थे कि महिला सरपंच काम नहीं कर पाएगी, लेकिन जब सविता राठी ने अपना काम शुरू किया, तब लोगों की यह सोच ख़त्म हो गई और आम जनता में विश्वास कायम हुआ ग्रामसभा की बैठकों द्वारा. जनता को लगा कि सविता वाकई हमारे लिए कुछ करेंगी, क्योंकि पंचायत की बैठकों में केवल पंच नहीं, पूरा गांव इकट्ठा होता है, जहां लोगों की समस्याएं सुनकर उनका निस्तारण किया जाने लगा. इससे विश्वास जमा. जब सविता राठी ने कार्यभार संभाला तो पंचायत भवन में कुछ नहीं था. इसके बाद पंचायत घर खुलवाया गया और वहां बैठके शुरू हुईं. लोगों को विश्वास दिलाया गया कि अगर वे आएंगे तो उनकी बात ज़रूर सुनी जाएगी और काम भी होगा. जब विश्वास जमा तो लोग आने शुरू हुए. अगर कोई ऐसा मसला आया भी, जिसमें विवाद उठा तो ख़ुद गांव वालों ने ही एक-दूसरे को समझाया और उसका हल निकला. ग़रीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ लेने के लिए ख़ूब मारामारी रहती है. हर कोई, खासकर प्रभावशाली लोग ग़रीब बनकर इन योजनाओं का लाभ लेना चाहते हैं, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए सबसे अच्छा ज़रिया ग्रामसभा है. ग्रामसभा में लोगों के सामने प्रभावशाली व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि फायदा मुझे मिले. पंचायत की निजी आय भी बढ़ाई गई, टैक्स वग़ैरह लगाकर. निजी आय से भी ज़रूरतमंद लोगों की सहायता की गई. दानदाताओं को भी प्रेरित किया गया. एक दानदाता ने 5 लाख रुपये दिए, ताकि ग़रीब लोगों के  मकान बन सकें. सविता राठी कहती हैं कि पंचायतों को टाइड फंड नहीं मिलना चाहिए, अनटाइट फंड मिलना चाहिए. हर जगह की अलग-अलग परिस्थिति होती है और हर गांव में अलग-अलग तरह के जीवनयापन के साधन होते हैं तो योजनाएं भी वहीं के लोग बनाएं. पंचायतों में योजनाएं बनें और सरकार यह सुनिश्चित करे कि सारे फैसले ग्रामसभा की बैठकों में हों. फिलहाल, सविता राठी की जगह नए सरपंच का चुनाव हो चुका है. ख़ुशी की बात यह है कि सविता अभी भी पंचायत के कामों में जुटी हैं और वर्तमान सरपंच को अपनी मदद देती रहती हैं. राठी ने विकास के जो मानक तय किए थे, उन्हें वर्तमान सरपंच भी अपना रहे हैं.

Thursday, December 9, 2010

दून स्कूल के बच्चे ग्रामीणों के लिए स्कूल बना रहे हैं

December 9, Thursday , 2010 
ठ्ठ जागरण संवाददाता, देहरादून देहरादून से 20 किमी दूर डांडापुर गांव में आजकल दून स्कूल समेत चंडीगढ़ और जयपुर के नामी स्कूलों के छात्र तीन कमरों वाला स्कूल बना रहे हैं। सुख सुविधाओं में पल-बढ़ रहे बच्चों को मिट्टी व पत्थर ढोने से गुरेज नहीं। वे यहां के गरीब बच्चों को क, ख, ग का ज्ञान भी दे रहे हैं। दून स्कूल ने 2003 में डांडापुर गांव में एक कमरे का स्कूल बनाया था, जिसमें आज 173 बच्चे शिक्षा ले रहे हैं। पढ़ाई के लिए जगह कम पड़ी तो दून स्कूल ने फिर मदद को हाथ बढ़ाया और छात्रों के सहयोग से यहां तीन कमरों का स्कूल बनाना शुरू किया। चार दिसंबर से यहां पर दून स्कूल, विवेक हाईस्कूल चंडीगढ़ और जयपुर के महारानी गायत्री देवी स्कूल के छात्र-छात्राएं इस काम में पूरा साथ दे रहे हैं। ये विद्यार्थी स्कूल निर्माण के लिए मिट्टी-पत्थर भी खुद ही ढो रहे हैं। कुछ बच्चे श्रम दान करते हैं तो कुछ स्कूल के बच्चों की क्लास लेते हैं। नतीजा यह कि गांव के बच्चे भी इंग्लिश शब्दों की मिनिंग बताने लगे हैं। विभिन्न स्कूलों से पहुंचे इन छात्रों का कहना है कि 20-25 साल बाद जब ये बच्चे कुछ बन जाएंगे तो हमारी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। तब शायद हर बच्चे को बेहतर स्कूल और बेहतर माहौल मिलेगा।

Source : http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49/edition=/pageno=