Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/mumbaiarticleshow/7255686.cms
नगर प्रतिनिधि ॥ चर्चगेट स्थित एचआर कॉलेज इस बार का 'यूथ डे' अर्थात स्वामी विवेकानंद जयंती (12 जनवरी) खास ढंग से मनाने जा रहा है। कॉलेज के कुछ छात्र इस दिन शहर के कई स्कूलों और सोसायटियों में जाकर वहां मौजूद वॉचमेन और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को शिक्षा के महत्व के बारे में समझाते हुए उनको स्कूलों में एनरॉल करने का प्रयास करेंगे।कॉलेज के रोटरैक्ट क्लब से जुड़े छात्रों का यह कार्यक्रम सही मायने में यूथ डे को सेलिब्रेट करेगा। छात्रों को उम्मीद है कि इसके जरिए वे भारत को बेहतर बनाने की दिशा में अपना योगदान दे सकेंगे। दिलचस्प है कि कॉलेज के ये छात्र पहले ही अपनी पढ़ाई से समय निकालकर दूसरे छात्रों को भी शिक्षा दे रहे हैं। 'बदलाव' प्रोजेक्ट के तहत इन छात्रों ने शहर के 8 नाइट स्कूलों में पढ़ रहे 16-25 वर्ष के 450 छात्रों को पढ़ाने का जिम्मा भी सम्हाला हुआ है।एचआर कॉलेज के 16 छात्रों का यह अभियान इन बच्चों को एसएससी एग्जाम की तैयारी करवाने से जुड़ा है। इसमें अंग्रेजी भाषा और बोलचाल की अंग्रेजी की कक्षाएं वे स्वयं ले रहे हैं। समय कब मिलता है दूसरों को पढ़ाने के लिए? जवाब में प्रोजेक्ट से जुड़े फर्स्ट इयर से फाइनल इयर के मिश्रित बैच ने एनबीटी को बताया, 'हम हर शनिवार को क्लास लेते हैं। वैसी दीवाली की छुट्टियों में स्पेशल कैंप लगाकर हमने काफी पोर्शन पूरा करवा दिया है।'इन 8 नाइट स्कूलों को अडॉप्ट करके छात्रों के लिए शिक्षा और दूसरे संसाधन मुहैया करवा रही संस्था 'मासूम' की प्रमुख निकिता केतकर कहती हैं, 'एचआर के छात्र बेहद अच्छा काम कर रहे हैं। हमारे बच्चों की ग्रामर और कंवर्सेशन की अच्छी प्रैक्टिस हो गई है। पिछले हमने इन वंचित बच्चों के लिए स्पोर्ट्स डे का आयोजन भी किया। इसमें भी रोटरैक्ट क्लब के छात्रों ने काफी मदद की। उनके आने से हमारे एजुकेशन वालंटियर्स को भी काफी मदद मिलती है।'बीकॉम फाइनल इयर की छात्रा निकिता चावला, जो 'बदलाव' की इवेंट कोऑर्डिनेटर हैं, गर्व से कहती हैं, 'देश का भविष्य तभी बेहतर होगा जब बच्चों को शिक्षित किया जाएगा। 12 जनवरी को हम यही संदेश सबको देंगे कि वे अपने आसपास जिस किसी को भी अल्पशिक्षित देखें, उसका नाम स्कूल में लिखवाएं।'
फोटो-एचआरकैप्शन: दीप से दीप जले: एचआर कॉलेज के स्टूडेंट्स नाइट स्कूल के बच्चों के साथ
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Monday, January 10, 2011
जब छात्र दे रहे हों 'राइट टु एजुकेशन'
Sunday, January 9, 2011
यह वक्त है घरवापसी का
Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2387201.cms?prtpage=1
यह वक्त है घरवापसी का
20 Sep 2007, 1802 hrs IST
यह वक्त है घरवापसी का
20 Sep 2007, 1802 hrs IST
सुंदर चंद ठाकुर
अगर आप सरकारी सब्सिडी पर चलने वाले देश के किसी इंस्टिट्यूट से पढ़ाई कर रहे हैं, तो आपको नौकरी के लिए विदेश जाने की कीमत अदा करनी पड़ सकती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय समिति ने सरकार को सुझाया है कि वह ऐसे छात्रों से 'एग्जिट टैक्स' और उन्हें जॉब देने वाली कंपनी से 'ग्रैजुएट टैक्स' लेकर अपने नुकसान की भरपाई करे। हो सकता है भारत सरकार को यह आइडिया पसंद आ जाए, लेकिन क्या अब इस काम के लिए बहुत देर नहीं हो गई? भारत से प्रतिभाओं का विदेश जाने का सिलसिला दशकों से चल रहा है, मगर यह 1990 का दशक था, जब हमने ऐसे मामलों में उफान आते देखा। उनके लिए आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र अमेरिका था। अमेरिका में ड्यूक यूनिवर्सिटी से जुड़े भारतीय मूल के एक रिसर्चर विनोद वाधवा ने हाल ही में एक स्टडी की। इस स्टडी में उनका कहना है कि अमेरिका में 1995 से 2005 के बीच जो इंजीनियरिंग और टेक्निकल कंपनियां खुलीं उनमें से चौथाई को खड़ा करने वाले भारतीय थे। लेकिन यह ट्रेंड अब खत्म हो रहा है, क्योंकि भारतीय प्रतिभाएं वापस भारत लौट रही हैं। काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के पूर्व डायरेक्टर जनरल और प्रख्यात वैज्ञानिक आए. ए. माशेलकर के मुताबिक कुछ साल पहले तक आईआईटी के 70 फीसदी छात्र नौकरी के लिए विदेश चले जाते थे, मगर अब यह आंकड़ा घटकर 30 फीसदी रह गया है। साफ है कि 'ब्रेन ड्रेन' अब 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' में बदल रहा है।
कुछ साल पहले तक शायद ही किसी ने 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' यानी विदेशों में बसे भारतीयों के वापस अपने देश लौट आने की कल्पना की होगी। इसकी उन्हें कोई वजह नजर नहीं आती थी। अमेरिका और यूरोप के देशों में वे बड़ी-छोटी कंपनियों में काम करते हुए खूब पैसा कमा रहे थे। उन्हें साफ-सुथरी आबोहवा, सुख-सुविधाएं, बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा और सबसे बड़ी बात, एक शानदार करियर और एक ग्लोबल स्टेटस हासिल था। भारत लौटकर वे करते भी क्या? गंदगी, करप्शन और पिछड़ेपन में ऐसा क्या था, जो उनका मन मोह लेता। यहां उन्हें कौन 50-50 हजार डॉलर सालाना पगार देता? लेकिन भारत की धड़धड़ाती इकॉनमी इस तस्वीर को बदल रही है। आज यूरोप और अमेरिका से प्रवासी वापस अपनी जन्मभूमि की ओर लौट रहे हैं। जिस बेहतर करियर की तलाश में उन्होंने देश छोड़ा था, आज वह उन्हें भारत में ही दिखाई दे रहा है।
इस 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' की पहली वजह यही है कि अब भारतीय कंपनियां बेहतर पगार, पॉजिशन और काम की बेहतर चुनौतियां पेश करने लगी हैं। भारत में हाई-टेक इकॉनमी के विकास ने ऐसे आकर्षक अवसर पैदा किए हैं, जिन्हें कोई भी लपकना चाहेगा। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को अपनी ग्लोबल समझ का भी फायदा मिल रहा है। कई ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने विदेशों में काम तो किया, लेकिन कामयाबी पाई भारत लौटने के बाद। उन्हें भारत इसलिए भी बेहतर विकल्प लगा क्योंकि यहां एक फैलता हुआ बाजार है और नए विचार आजमाए जा सकते हैं, जबकि विदेशी बाजार अब ठहर चुका है। ज्यादातर अमेरिकी कंपनियां एक रुटीन में चल रही हैं। वे महत्वाकांक्षी कर्मचारियों को नई चुनौतियों की खुराक नहीं दे पा रहीं। इसलिए हर वह भारतीय जो चुनौतियों की तलाश में अमेरिका गया था, अब उनका पीछा करता हुआ भारत लौट रहा है। नैशनल असोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज का अनुमान है कि 2001 में 7000 प्रवासी भारत वापस लौट रहे थे। 2004 तक यह आंकड़ा बढ़कर 10 हजार हो गया। ब्रिटेन के अखबार द टाइम्स के मुताबिक अब तक ब्रिटेन में रह रहे भारतीय मूल के 32 हजार युवा बेहतर करियर की तलाश में भारत लौट चुके हैं।
एक दिलचस्प पहलू यह है कि भारत में अमेरिका या ब्रिटेन की तुलना में सैलरी आज भी बहुत कम है। लेकिन कम सैलरी की भरपाई भारत में उपलब्ध सस्ती सेवाएं और चीजें कर रही हैं। खासकर अमेरिका से लौट रहे प्रवासी भारतीय भारत की पर्चेजिंग पावर पैरिटी (पीपीपी) को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। यही वह फैक्टर है, जिसके चलते प्रवासियों के लिए भारत की राह पकड़ने का फैसला आसान हो गया है। 1993 में जब पहली बार पीपीपी के आधार पर जीडीपी के आंकड़े सामने आए थे, तो भारत के लिए पीपीपी फैक्टर 4.5 आंका गया था। इतने बरसों में यह फैक्टर लगभग स्थिर बना रहा है। इसके मायने हुए कि वस्तुत: भारत की जीडीपी की हैसियत 4.5 गुना कम आंकी जा रही है, यानी पीपीपी के आधार पर एक डॉलर की कीमत 46 रुपये न होकर 10.5 रुपये हुई। इस लिहाज से अमेरिका में डॉलरों में मिल रही सैलरी और भारत में रुपयों में मिल रही पगार के बीच फर्क कम हो जाता है। इस तरह भारत में बनिस्बत कम पगार के भी प्रवासी भारतीय अपनी अमेरिकी लाइफ स्टाइल बरकरार रख सकते हैं।
प्रवासियों के लिए भारत लौटने का एक रास्ता उनकी अपनी ही कंपनियां भी खोल रही हैं। ऐसी कई मल्टी नैशनल कंपनियां हैं, जिन्होंने पिछले बरसों में भारत के बाजार से खुश होकर यहां अपनी शाखाएं खोल ली हैं। ऐसी ज्यादातर कंपनियों ने भारतीय ऑपरेशन संभालने के लिए भारतीय अफसरों को ही प्राथमिकता दी है। विदेशों में अपने भारतीय कर्मचारियों को स्वदेश लौटने का आकर्षक ऑफर देकर उन्होंने निचले स्तरों पर भी कई प्रवासियों को वापस आने का मौका दिया है। इस 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' की वजहों के मूल में कहीं न कहीं अपनी जड़ों से प्रेम भी है। युवा उम्र में विदेश जाने और पैसा कमाने की ललक जोर मारती है, लेकिन मिडिल एज तक आते-आते अपने बूढ़े माता-पिता का खयाल रखने और अपने समाज में रहने की इच्छा बढ़ जाती है। करियर को लेकर कोई समझौता किए बगैर अगर किसी की यह इच्छा पूरी हो रही हो, तो वह भला क्यों पीछे रहेगा।
ऐसे में सरकार को शायद ब्रेन ड्रेन को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं। वह सिर्फ यह सुनिश्चित करे कि देश की इकॉनमी अपनी रफ्तार बरकरार रखे। एग्जिट टैक्स या ग्रैजुएशन टैक्स लगाकर वह अपनी अंटी में जितना पैसा जमा करेगी, उससे कई गुना ज्यादा उसे लौटकर वापस आने वाले इन सपूतों के काम से मिल जाएगा। फिर वह दिन भी शायद दूर नहीं होगा, जब ब्रेन ड्रेन शब्द सिर्फ डिक्शनरी में रह जाएगा।
अगर आप सरकारी सब्सिडी पर चलने वाले देश के किसी इंस्टिट्यूट से पढ़ाई कर रहे हैं, तो आपको नौकरी के लिए विदेश जाने की कीमत अदा करनी पड़ सकती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय समिति ने सरकार को सुझाया है कि वह ऐसे छात्रों से 'एग्जिट टैक्स' और उन्हें जॉब देने वाली कंपनी से 'ग्रैजुएट टैक्स' लेकर अपने नुकसान की भरपाई करे। हो सकता है भारत सरकार को यह आइडिया पसंद आ जाए, लेकिन क्या अब इस काम के लिए बहुत देर नहीं हो गई? भारत से प्रतिभाओं का विदेश जाने का सिलसिला दशकों से चल रहा है, मगर यह 1990 का दशक था, जब हमने ऐसे मामलों में उफान आते देखा। उनके लिए आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र अमेरिका था। अमेरिका में ड्यूक यूनिवर्सिटी से जुड़े भारतीय मूल के एक रिसर्चर विनोद वाधवा ने हाल ही में एक स्टडी की। इस स्टडी में उनका कहना है कि अमेरिका में 1995 से 2005 के बीच जो इंजीनियरिंग और टेक्निकल कंपनियां खुलीं उनमें से चौथाई को खड़ा करने वाले भारतीय थे। लेकिन यह ट्रेंड अब खत्म हो रहा है, क्योंकि भारतीय प्रतिभाएं वापस भारत लौट रही हैं। काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के पूर्व डायरेक्टर जनरल और प्रख्यात वैज्ञानिक आए. ए. माशेलकर के मुताबिक कुछ साल पहले तक आईआईटी के 70 फीसदी छात्र नौकरी के लिए विदेश चले जाते थे, मगर अब यह आंकड़ा घटकर 30 फीसदी रह गया है। साफ है कि 'ब्रेन ड्रेन' अब 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' में बदल रहा है।
कुछ साल पहले तक शायद ही किसी ने 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' यानी विदेशों में बसे भारतीयों के वापस अपने देश लौट आने की कल्पना की होगी। इसकी उन्हें कोई वजह नजर नहीं आती थी। अमेरिका और यूरोप के देशों में वे बड़ी-छोटी कंपनियों में काम करते हुए खूब पैसा कमा रहे थे। उन्हें साफ-सुथरी आबोहवा, सुख-सुविधाएं, बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा और सबसे बड़ी बात, एक शानदार करियर और एक ग्लोबल स्टेटस हासिल था। भारत लौटकर वे करते भी क्या? गंदगी, करप्शन और पिछड़ेपन में ऐसा क्या था, जो उनका मन मोह लेता। यहां उन्हें कौन 50-50 हजार डॉलर सालाना पगार देता? लेकिन भारत की धड़धड़ाती इकॉनमी इस तस्वीर को बदल रही है। आज यूरोप और अमेरिका से प्रवासी वापस अपनी जन्मभूमि की ओर लौट रहे हैं। जिस बेहतर करियर की तलाश में उन्होंने देश छोड़ा था, आज वह उन्हें भारत में ही दिखाई दे रहा है।
इस 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' की पहली वजह यही है कि अब भारतीय कंपनियां बेहतर पगार, पॉजिशन और काम की बेहतर चुनौतियां पेश करने लगी हैं। भारत में हाई-टेक इकॉनमी के विकास ने ऐसे आकर्षक अवसर पैदा किए हैं, जिन्हें कोई भी लपकना चाहेगा। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को अपनी ग्लोबल समझ का भी फायदा मिल रहा है। कई ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने विदेशों में काम तो किया, लेकिन कामयाबी पाई भारत लौटने के बाद। उन्हें भारत इसलिए भी बेहतर विकल्प लगा क्योंकि यहां एक फैलता हुआ बाजार है और नए विचार आजमाए जा सकते हैं, जबकि विदेशी बाजार अब ठहर चुका है। ज्यादातर अमेरिकी कंपनियां एक रुटीन में चल रही हैं। वे महत्वाकांक्षी कर्मचारियों को नई चुनौतियों की खुराक नहीं दे पा रहीं। इसलिए हर वह भारतीय जो चुनौतियों की तलाश में अमेरिका गया था, अब उनका पीछा करता हुआ भारत लौट रहा है। नैशनल असोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज का अनुमान है कि 2001 में 7000 प्रवासी भारत वापस लौट रहे थे। 2004 तक यह आंकड़ा बढ़कर 10 हजार हो गया। ब्रिटेन के अखबार द टाइम्स के मुताबिक अब तक ब्रिटेन में रह रहे भारतीय मूल के 32 हजार युवा बेहतर करियर की तलाश में भारत लौट चुके हैं।
एक दिलचस्प पहलू यह है कि भारत में अमेरिका या ब्रिटेन की तुलना में सैलरी आज भी बहुत कम है। लेकिन कम सैलरी की भरपाई भारत में उपलब्ध सस्ती सेवाएं और चीजें कर रही हैं। खासकर अमेरिका से लौट रहे प्रवासी भारतीय भारत की पर्चेजिंग पावर पैरिटी (पीपीपी) को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। यही वह फैक्टर है, जिसके चलते प्रवासियों के लिए भारत की राह पकड़ने का फैसला आसान हो गया है। 1993 में जब पहली बार पीपीपी के आधार पर जीडीपी के आंकड़े सामने आए थे, तो भारत के लिए पीपीपी फैक्टर 4.5 आंका गया था। इतने बरसों में यह फैक्टर लगभग स्थिर बना रहा है। इसके मायने हुए कि वस्तुत: भारत की जीडीपी की हैसियत 4.5 गुना कम आंकी जा रही है, यानी पीपीपी के आधार पर एक डॉलर की कीमत 46 रुपये न होकर 10.5 रुपये हुई। इस लिहाज से अमेरिका में डॉलरों में मिल रही सैलरी और भारत में रुपयों में मिल रही पगार के बीच फर्क कम हो जाता है। इस तरह भारत में बनिस्बत कम पगार के भी प्रवासी भारतीय अपनी अमेरिकी लाइफ स्टाइल बरकरार रख सकते हैं।
प्रवासियों के लिए भारत लौटने का एक रास्ता उनकी अपनी ही कंपनियां भी खोल रही हैं। ऐसी कई मल्टी नैशनल कंपनियां हैं, जिन्होंने पिछले बरसों में भारत के बाजार से खुश होकर यहां अपनी शाखाएं खोल ली हैं। ऐसी ज्यादातर कंपनियों ने भारतीय ऑपरेशन संभालने के लिए भारतीय अफसरों को ही प्राथमिकता दी है। विदेशों में अपने भारतीय कर्मचारियों को स्वदेश लौटने का आकर्षक ऑफर देकर उन्होंने निचले स्तरों पर भी कई प्रवासियों को वापस आने का मौका दिया है। इस 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' की वजहों के मूल में कहीं न कहीं अपनी जड़ों से प्रेम भी है। युवा उम्र में विदेश जाने और पैसा कमाने की ललक जोर मारती है, लेकिन मिडिल एज तक आते-आते अपने बूढ़े माता-पिता का खयाल रखने और अपने समाज में रहने की इच्छा बढ़ जाती है। करियर को लेकर कोई समझौता किए बगैर अगर किसी की यह इच्छा पूरी हो रही हो, तो वह भला क्यों पीछे रहेगा।
ऐसे में सरकार को शायद ब्रेन ड्रेन को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं। वह सिर्फ यह सुनिश्चित करे कि देश की इकॉनमी अपनी रफ्तार बरकरार रखे। एग्जिट टैक्स या ग्रैजुएशन टैक्स लगाकर वह अपनी अंटी में जितना पैसा जमा करेगी, उससे कई गुना ज्यादा उसे लौटकर वापस आने वाले इन सपूतों के काम से मिल जाएगा। फिर वह दिन भी शायद दूर नहीं होगा, जब ब्रेन ड्रेन शब्द सिर्फ डिक्शनरी में रह जाएगा।
सोने के सिक्कों पर भारी पड़ती माटी की गंध
Source: http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/7231403.cms
मंजरी चतुर्वेदी ॥ नई दिल्ली
किसी ने उन्हें के्रजी कहा, तो किसी ने दीवाना। पैरंट्स ने उनके विचार सुने तो सिर पकड़ लिया- हाय साडा लाडला बिगड़ गया और बेटियों के मामले में तुरंत उसके हाथ पीले करने का मन बना लिया। लेकिन इन दीवानों ने न अपनों की सुनी, न गैरों की। सुनी तो, सिर्फ अपने दिल की और झोला उठाकर चल दिए एक नई इबारत लिखने अपने जड़ों यानी अपने पूर्वजों की धरती की ओर।
पिछले कुछ अर्से से बड़ी संख्या में प्रवासियों की यंग ब्रिगेड अपने देश वापस लौटकर यहां के सामाजिक-आर्थिक विकास की नई इबारतें लिखने में व्यस्त हैं। इनमें 19 साल के नौजवान से लेकर 35 साल के युवा तक सब मौजूद हैं। किरदार अलग-अलग, लेकिन जज्बा एक- मेक अ डिफरेंस।
अमेरिका में एनवायरनमेंटल इंजीनियर रहे चुके विजय गिलानी पिछले कुछ सालों से 'मुंबई वोट' नामक संस्था चलाते हैं, जो राजनैतिक जागरूकता फैलाने के साथ-साथ रीसाइकिलिंग के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। हावर्ड कॉलेज से ग्रेजुएशन व बोस्टन के चार्टर स्कूल में टेक्नॉलजी डायरेक्टर के तौर पर काम करने वाले आनंद शाह फिलहाल गांवों में पीने का साफ पानी मुहैया कराने की 'सर्वजल' योजना पर काम कर रहे हैं।
इसी तरह, नौजवान रिकिन गांधी एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग करने के बाद फाइटर पाइलट बने, फिर अचानक एक दिन सब छोड़ कर देश लौटे और 'डिजिटल ग्रीन' की शुरुआत की। वह पिछले दो साल से कर्नाटक, उड़ीसा और झारखंड के लगभग 200 गांवों में किसानों और खेती के सुधार की दिशा में काम कर रहे हैं।
31 वर्षीया भारती जानी ने जब मियामी और फ्रांस से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद 10 साल पहले देश में लौट कर बिजनेस शुरू करने की बात की तो घरवालों को लगा कि लड़की का दिमाग खराब हो गया है। अच्छा होगा कि शादी कर दी जाए। भारती ने ग्रास रूट लेवल पर महिलाओं को साथ लेकर काम शुरू किया और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में काफी काम किया।
ये कहानी किसी दो-चार युवाओं की नहीं है, बल्कि बड़ी तादाद में युवा विदेशों से लौट कर अपने-अपने तरीके से कुछ अलग ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसका समाज में कुछ असर दिखाई दे। ऐसे तमाम उदाहरण दिखे प्रवासी भारतीय दिवस के मौके पर आयोजित एक सेमिनार में, जिसकी थीम थी- देश के विकास में प्रवासी युवा को संलग्न करना। इसका आयोजन ग्लोबल यंग इंडियन प्रफेशनल्स एंड स्टूडेंट ने प्रवासी भारतीय दिवस और सीआईआई के साथ मिलकर किया था।
प्रवासी भारतीयों के मामले से जुडे़ मंत्रालय के उच्चस्तरीय सूत्रों के अनुसार , पिछले कुछ अर्से में लगभग एक लाख प्रवासी और अनिवासी भारतीय वापस अपने देश लौटे हैं। गौरतलब है कि मंत्रालय सहित देश के तमाम सरकारी और गैरसरकारी संस्थान इन दिनों प्रवासी युवाओं को अपना हिस्सा बनाने के लिए न सिर्फ तत्पर हैं , बल्कि उनके तमाम विकल्प भी मुहैया कराए जा रहे हैं। युवाओं की इस यंग बिग्रेड की घर वापसी के पीछे जो बात सबसे महत्वपूर्ण नजर आई , वह था इनका अपनी जड़ों के आकर्षण और विसंगतियों से भरे अपने देश में ऐसा कुछ करना , जिससे कहीं कोई बदलाव की चिंगारी न िकले।
मंजरी चतुर्वेदी ॥ नई दिल्ली
किसी ने उन्हें के्रजी कहा, तो किसी ने दीवाना। पैरंट्स ने उनके विचार सुने तो सिर पकड़ लिया- हाय साडा लाडला बिगड़ गया और बेटियों के मामले में तुरंत उसके हाथ पीले करने का मन बना लिया। लेकिन इन दीवानों ने न अपनों की सुनी, न गैरों की। सुनी तो, सिर्फ अपने दिल की और झोला उठाकर चल दिए एक नई इबारत लिखने अपने जड़ों यानी अपने पूर्वजों की धरती की ओर।
पिछले कुछ अर्से से बड़ी संख्या में प्रवासियों की यंग ब्रिगेड अपने देश वापस लौटकर यहां के सामाजिक-आर्थिक विकास की नई इबारतें लिखने में व्यस्त हैं। इनमें 19 साल के नौजवान से लेकर 35 साल के युवा तक सब मौजूद हैं। किरदार अलग-अलग, लेकिन जज्बा एक- मेक अ डिफरेंस।
अमेरिका में एनवायरनमेंटल इंजीनियर रहे चुके विजय गिलानी पिछले कुछ सालों से 'मुंबई वोट' नामक संस्था चलाते हैं, जो राजनैतिक जागरूकता फैलाने के साथ-साथ रीसाइकिलिंग के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। हावर्ड कॉलेज से ग्रेजुएशन व बोस्टन के चार्टर स्कूल में टेक्नॉलजी डायरेक्टर के तौर पर काम करने वाले आनंद शाह फिलहाल गांवों में पीने का साफ पानी मुहैया कराने की 'सर्वजल' योजना पर काम कर रहे हैं।
इसी तरह, नौजवान रिकिन गांधी एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग करने के बाद फाइटर पाइलट बने, फिर अचानक एक दिन सब छोड़ कर देश लौटे और 'डिजिटल ग्रीन' की शुरुआत की। वह पिछले दो साल से कर्नाटक, उड़ीसा और झारखंड के लगभग 200 गांवों में किसानों और खेती के सुधार की दिशा में काम कर रहे हैं।
31 वर्षीया भारती जानी ने जब मियामी और फ्रांस से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद 10 साल पहले देश में लौट कर बिजनेस शुरू करने की बात की तो घरवालों को लगा कि लड़की का दिमाग खराब हो गया है। अच्छा होगा कि शादी कर दी जाए। भारती ने ग्रास रूट लेवल पर महिलाओं को साथ लेकर काम शुरू किया और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में काफी काम किया।
ये कहानी किसी दो-चार युवाओं की नहीं है, बल्कि बड़ी तादाद में युवा विदेशों से लौट कर अपने-अपने तरीके से कुछ अलग ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसका समाज में कुछ असर दिखाई दे। ऐसे तमाम उदाहरण दिखे प्रवासी भारतीय दिवस के मौके पर आयोजित एक सेमिनार में, जिसकी थीम थी- देश के विकास में प्रवासी युवा को संलग्न करना। इसका आयोजन ग्लोबल यंग इंडियन प्रफेशनल्स एंड स्टूडेंट ने प्रवासी भारतीय दिवस और सीआईआई के साथ मिलकर किया था।
प्रवासी भारतीयों के मामले से जुडे़ मंत्रालय के उच्चस्तरीय सूत्रों के अनुसार , पिछले कुछ अर्से में लगभग एक लाख प्रवासी और अनिवासी भारतीय वापस अपने देश लौटे हैं। गौरतलब है कि मंत्रालय सहित देश के तमाम सरकारी और गैरसरकारी संस्थान इन दिनों प्रवासी युवाओं को अपना हिस्सा बनाने के लिए न सिर्फ तत्पर हैं , बल्कि उनके तमाम विकल्प भी मुहैया कराए जा रहे हैं। युवाओं की इस यंग बिग्रेड की घर वापसी के पीछे जो बात सबसे महत्वपूर्ण नजर आई , वह था इनका अपनी जड़ों के आकर्षण और विसंगतियों से भरे अपने देश में ऐसा कुछ करना , जिससे कहीं कोई बदलाव की चिंगारी न िकले।
इस गांव में 15 साल से कायम है 'रामराज'
Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/7243674.cms
गोरखपुर।। देश और दुनिया में बढ़ता अपराध एक बड़ी चुनौती बन गया है, लेकिन यूपी में एक ऐसा गांव है, जहां कलियुग में भी 'रामराज' स्थापित है। ब्राह्मण बहुल इस गांव में 15 साल से कोई अपराध नहीं हुआ है।
गोरखपुर जिले के सहजनवा थाना क्षेत्र स्थित करीब 1500 की आबादी वाले तख्ता गांव के लोगों को इस बात पर गर्व है किउनका गांव अपराध की काली छाया से दूर है। उनका दावा है कि 15 साल में यहां मारपीट, फौजदारी, चोरी, लूट, अपहरण या हत्या जैसी कोई आपराधिक घटना नहीं हुई है।
अगर आप यह सोचते हैं कि यूपी में अपराध मुक्त होने का दावा केवल तख्ता गांव के लोग ही कर रहे हैं, तो ऐसा नहीं है। पुलिस के रेकॉर्ड भी उनके दावों पर मुहर लगाते हैं। सहजनवा थाने के रेकॉर्ड में यह गांव डेढ़ दशक से बिल्कुल बेदाग है। सहजनवा थाने के कार्यकारी थाना प्रभारी लल्लन सिंह ने बताया कि तीन साल पहले जब इस थाने में मेरी तैनाती हुई थी तो मुझे इस गांव की खासियत जानकर बहुत आश्चर्य हुआ था। हत्या या अपहरण जैसे बड़े अपराधों को तो छोड़ ही दें, पर्स चोरी, झपटमारी और चोरी जैसे छोटे अपराध की शिकायत भी इस गांव से सालों से नहीं आई हैं।
यह पूछने पर कि पंद्रह साल पहले यहां कौन-सा बड़ा अपराध हुआ था, उन्होंने असर्थता जताते हुए कहा कि इसके लिए पुराने रेकॉर्ड खंगालने पड़ेंगे, जिसमें बहुत ज्यादा समय लगेगा। तख्ता गांव भले ही पंद्रह साल से अपराध मुक्त रहा हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि दूसरे गांवों की तरह यहां के लोगों में आपसी मनमुटाव नहीं होता। अगर कभी किसी के बीच मनमुटाव हो भी गया तो गांव के बड़े-बुजुर्ग और पंचायत, गांव की सरहद के अंदर ही मामला सुलझा देते हैं। इसलिए छोटे-मोटे मामले थाना तक नहीं पहुंचते हैं।
एक ग्रामीण शिव प्रताप मिश्र (65) ने बताया कि यहां भी लोगों के बीच छोटा-मोटा विवाद होता है, पर वे मामले को लेकर थाने पर न जाकर गांव के बड़े-बुर्जुगों के पास मुद्दा रखते हैं। वे जो फैसला करते हैं, दोनों पक्ष खुशी-खुशी उसे स्वीकार कर लेते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि बड़े-बुजुर्गों का सम्मान और उनके प्रति भरोसा जताए जाने के कारण आसपास के इलाके में उनके गांव को विशिष्ट पहचान मिली है।
गोरखपुर शहर से करीब 40 किलोमीटर दूर तख्ता गांव की आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ब्राह्मण बिरादरी का है। 25 प्रतिशत में दलित एवं अन्य जातियां हैं। गांव के ज्यादातर लोग खेती करते हैं और कई घरों के लोग सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में भी हैं।
गोरखपुर।। देश और दुनिया में बढ़ता अपराध एक बड़ी चुनौती बन गया है, लेकिन यूपी में एक ऐसा गांव है, जहां कलियुग में भी 'रामराज' स्थापित है। ब्राह्मण बहुल इस गांव में 15 साल से कोई अपराध नहीं हुआ है।
गोरखपुर जिले के सहजनवा थाना क्षेत्र स्थित करीब 1500 की आबादी वाले तख्ता गांव के लोगों को इस बात पर गर्व है किउनका गांव अपराध की काली छाया से दूर है। उनका दावा है कि 15 साल में यहां मारपीट, फौजदारी, चोरी, लूट, अपहरण या हत्या जैसी कोई आपराधिक घटना नहीं हुई है।
अगर आप यह सोचते हैं कि यूपी में अपराध मुक्त होने का दावा केवल तख्ता गांव के लोग ही कर रहे हैं, तो ऐसा नहीं है। पुलिस के रेकॉर्ड भी उनके दावों पर मुहर लगाते हैं। सहजनवा थाने के रेकॉर्ड में यह गांव डेढ़ दशक से बिल्कुल बेदाग है। सहजनवा थाने के कार्यकारी थाना प्रभारी लल्लन सिंह ने बताया कि तीन साल पहले जब इस थाने में मेरी तैनाती हुई थी तो मुझे इस गांव की खासियत जानकर बहुत आश्चर्य हुआ था। हत्या या अपहरण जैसे बड़े अपराधों को तो छोड़ ही दें, पर्स चोरी, झपटमारी और चोरी जैसे छोटे अपराध की शिकायत भी इस गांव से सालों से नहीं आई हैं।
यह पूछने पर कि पंद्रह साल पहले यहां कौन-सा बड़ा अपराध हुआ था, उन्होंने असर्थता जताते हुए कहा कि इसके लिए पुराने रेकॉर्ड खंगालने पड़ेंगे, जिसमें बहुत ज्यादा समय लगेगा। तख्ता गांव भले ही पंद्रह साल से अपराध मुक्त रहा हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि दूसरे गांवों की तरह यहां के लोगों में आपसी मनमुटाव नहीं होता। अगर कभी किसी के बीच मनमुटाव हो भी गया तो गांव के बड़े-बुजुर्ग और पंचायत, गांव की सरहद के अंदर ही मामला सुलझा देते हैं। इसलिए छोटे-मोटे मामले थाना तक नहीं पहुंचते हैं।
एक ग्रामीण शिव प्रताप मिश्र (65) ने बताया कि यहां भी लोगों के बीच छोटा-मोटा विवाद होता है, पर वे मामले को लेकर थाने पर न जाकर गांव के बड़े-बुर्जुगों के पास मुद्दा रखते हैं। वे जो फैसला करते हैं, दोनों पक्ष खुशी-खुशी उसे स्वीकार कर लेते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि बड़े-बुजुर्गों का सम्मान और उनके प्रति भरोसा जताए जाने के कारण आसपास के इलाके में उनके गांव को विशिष्ट पहचान मिली है।
गोरखपुर शहर से करीब 40 किलोमीटर दूर तख्ता गांव की आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ब्राह्मण बिरादरी का है। 25 प्रतिशत में दलित एवं अन्य जातियां हैं। गांव के ज्यादातर लोग खेती करते हैं और कई घरों के लोग सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में भी हैं।
Monday, December 27, 2010
पुणे के किसान की सफलता की कहानी - अभिनव फार्मर्स क्लब
Source : http://www.rediff.com/ business/slide-show/slide- show-1-the-rags-to-riches- story-of-a-farmer/20101227.htm
Some 20-odd kilometres off the Pune-Mumbai road, near Baner, a fork to the left goes to Hinjewadi. Just five years ago, the landscape was lush with green fields that produced rice, jowar, bajra, sugarcane amongst other crops.
Off late, Hinjewadi has become famous as an information technology hub that houses the creme de la creme of technology companies, Indian and multinational.
Infosys, Wipro, Cognizant, Tata Technologies, Veritas Software Corporation . . . the list goes on.
While the service sector is fast replacing agriculture as the major employment provider in Hinjewadi, some patches of green still dot the concrete arena.
About three kilometres off this arena, on the same road that cuts off the Pune-Mumbai road, there is a small bungalow owned by a 40-year-old farmer, who had to fight the Maharashtra government so that he and his fellow farmers could continue to grow vegetables.
Dnyaneshwar Nivrutti Bodke is a farmer who hates subsidies and loan waivers. He also keeps off politicians and their promise of freebies.
The only time he availed of the state largesse was to repay his first ever loan.
Read full story from
http://www.rediff.com/business/slide-show/slide-show-1-the-rags-to-riches-story-of-a-farmer/20101227.htm
Some 20-odd kilometres off the Pune-Mumbai road, near Baner, a fork to the left goes to Hinjewadi. Just five years ago, the landscape was lush with green fields that produced rice, jowar, bajra, sugarcane amongst other crops.
Off late, Hinjewadi has become famous as an information technology hub that houses the creme de la creme of technology companies, Indian and multinational.
Infosys, Wipro, Cognizant, Tata Technologies, Veritas Software Corporation . . . the list goes on.
While the service sector is fast replacing agriculture as the major employment provider in Hinjewadi, some patches of green still dot the concrete arena.
About three kilometres off this arena, on the same road that cuts off the Pune-Mumbai road, there is a small bungalow owned by a 40-year-old farmer, who had to fight the Maharashtra government so that he and his fellow farmers could continue to grow vegetables.
Dnyaneshwar Nivrutti Bodke is a farmer who hates subsidies and loan waivers. He also keeps off politicians and their promise of freebies.
The only time he availed of the state largesse was to repay his first ever loan.
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Friday, December 17, 2010
सामूहिक निर्णय प्रक्रिया से बदली तस्वीर
Source : http://www.chauthiduniya.com/2010/12/samuhik-nirnayi-prakriya-se-badali-tasvir.html
राज्य कभी नहीं चाहता कि समाज एकजुट, मज़बूत और आर्थिक रूप से संपन्न हो. वह हमेशा चाहता है कि समाज बंटा रहे, टूटा रहे, इस पर आश्रित रहे और गुलाम मानसिकता में जीना सीख ले. यहां तक कि गुलामी के दिनों में भी समाज के मामलों में राज्य का इतना हस्तक्षेप नहीं था, जितना स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक भारत में बढ़ता चला गया. अब तो समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया गया है और राज्य ही समाज का स्थान लेता हुआ दिख रहा है. इसका समाधान इस रूप में देखा गया कि लोकतंत्र को लोक स्वराज की तऱफ मोड़ा जाए. मसलन गांवों में लोक स्वराज का प्रयोग किया जाए. लोक और तंत्र के बीच की दूरी को कम किया जाए. संविधान द्वारा तंत्र संरक्षक की भूमिका में स्थापित है, जबकि इसे प्रबंधक की भूमिका में होना चाहिए था. लोक और तंत्र के बीच बढ़ती हुई इसी दूरी को कम करने का काम देश के कुछ हिस्सों में चल रहा है. ऐसा ही एक गांव है गोपालपुरा. राजस्थान के चुरू ज़िले के सुजानगढ़ के रेगिस्तान में गोपालपुरा गांव विकास की नई कहानी लिख रहा है. 2005 में हुए पंचायत चुनाव में गोपालपुरा पंचायत के तहत आने वाले तीन मजरों- गोपालपुरा, सुरवास एवं डूंगर घाटी के लोगों ने सविता राठी को सरपंच चुना. वकालत की पढ़ाई कर चुकीं सविता राठी ने लोगों के साथ मिलकर गांव के विकास का नारा दिया था. सरपंच बनने के बाद सविता ने सबसे पहला काम ग्रामसभा की नियमित बैठकें बुलाने का किया. एक पिछड़े और ग़रीब गांव के विकास के लिए पांच साल कोई बहुत लंबा समय नहीं होता, लेकिन ग्रामसभा की बैठकें होने से गांव के लोगों में विश्वास जागा कि उनके गांव की स्थिति भी बेहतर हो सकती है.
तीन गांवों को मिलाकर यह पंचायत बनी. गोपालपुरा, सुरवास और डूंगर घाटी. गोपालपुरा में क़रीब 800 परिवार हैं. सुरवास में 150 और डूंगर घाटी अलग गांव नहीं है, अलग से बस्ती है और इसमें भी 150 परिवार हैं. कुल मिलाकर 6000 की आबादी. ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से हैं. यहां पंचायत का हर काम ग्रामसभा की खुली बैठक में तय होता है. ग्रामसभा में फैसले होने के चलते लोग ऐसे-ऐसे फैसले भी मान लेते हैं, जो सामान्यत: अगर अफसरों या नेताओं द्वारा लिए जाएं तो कभी न माने जाएं. इसमें सबसे अहम रहा पानी बेचने का फैसला. सरपंच के साथ गांव वालों ने लगकर पानी की कमी पूरी की. पानी के स्रोत ठीक किए गए. तालाबों में पानी बढ़ गया. ज़मीन के नीचे का पानी भी ऊपर उठ आया. इसके बाद पानी का व्यापार शुरू हो गया. राजस्थान में पानी की कमी रहती है. कुछ लोगों ने गांव के तालाबों का पानी टैंकरों में बाहर ले जाकर बेचने का धंधा शुरू कर दिया. इसमें गांव के भी कुछ लोग शामिल थे, लेकिन ग्रामसभा में जब यह मुद्दा उठा तो तय हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी का स्तर ऊपर आया है और गांव का पानी इस तरह बेचा नहीं जाना चाहिए. ग्रामसभा में निर्णय लेकर तालाबों के चारों तऱफ चहारदीवारी बनवाई गई और गेट लगाकर ताले जड़ दिए गए. अब गांव में टैंकर से कोई पानी नहीं उठाता.
सरकार की तऱफ से तय समय पर निश्चित बैठकें तो होती ही हैं, इसके अलावा जब भी कभी पूरे गांव का कोई मसला होता है तो ग्रामसभा की बैठक बुलाई जाती है और उस मसले को हल किया जाता है. औसतन महीने में एक बैठक ग्रामसभा की होती ही है और हर बैठक में लगभग 100-200 लोग आते हैं. शुरू में तो प्रभावशाली और दलाल किस्म के लोग सोचते थे कि महिला सरपंच काम नहीं कर पाएगी, लेकिन जब सविता राठी ने अपना काम शुरू किया, तब लोगों की यह सोच ख़त्म हो गई और आम जनता में विश्वास कायम हुआ ग्रामसभा की बैठकों द्वारा. जनता को लगा कि सविता वाकई हमारे लिए कुछ करेंगी, क्योंकि पंचायत की बैठकों में केवल पंच नहीं, पूरा गांव इकट्ठा होता है, जहां लोगों की समस्याएं सुनकर उनका निस्तारण किया जाने लगा. इससे विश्वास जमा. जब सविता राठी ने कार्यभार संभाला तो पंचायत भवन में कुछ नहीं था. इसके बाद पंचायत घर खुलवाया गया और वहां बैठके शुरू हुईं. लोगों को विश्वास दिलाया गया कि अगर वे आएंगे तो उनकी बात ज़रूर सुनी जाएगी और काम भी होगा. जब विश्वास जमा तो लोग आने शुरू हुए. अगर कोई ऐसा मसला आया भी, जिसमें विवाद उठा तो ख़ुद गांव वालों ने ही एक-दूसरे को समझाया और उसका हल निकला. ग़रीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ लेने के लिए ख़ूब मारामारी रहती है. हर कोई, खासकर प्रभावशाली लोग ग़रीब बनकर इन योजनाओं का लाभ लेना चाहते हैं, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए सबसे अच्छा ज़रिया ग्रामसभा है. ग्रामसभा में लोगों के सामने प्रभावशाली व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि फायदा मुझे मिले. पंचायत की निजी आय भी बढ़ाई गई, टैक्स वग़ैरह लगाकर. निजी आय से भी ज़रूरतमंद लोगों की सहायता की गई. दानदाताओं को भी प्रेरित किया गया. एक दानदाता ने 5 लाख रुपये दिए, ताकि ग़रीब लोगों के मकान बन सकें. सविता राठी कहती हैं कि पंचायतों को टाइड फंड नहीं मिलना चाहिए, अनटाइट फंड मिलना चाहिए. हर जगह की अलग-अलग परिस्थिति होती है और हर गांव में अलग-अलग तरह के जीवनयापन के साधन होते हैं तो योजनाएं भी वहीं के लोग बनाएं. पंचायतों में योजनाएं बनें और सरकार यह सुनिश्चित करे कि सारे फैसले ग्रामसभा की बैठकों में हों. फिलहाल, सविता राठी की जगह नए सरपंच का चुनाव हो चुका है. ख़ुशी की बात यह है कि सविता अभी भी पंचायत के कामों में जुटी हैं और वर्तमान सरपंच को अपनी मदद देती रहती हैं. राठी ने विकास के जो मानक तय किए थे, उन्हें वर्तमान सरपंच भी अपना रहे हैं.
राज्य कभी नहीं चाहता कि समाज एकजुट, मज़बूत और आर्थिक रूप से संपन्न हो. वह हमेशा चाहता है कि समाज बंटा रहे, टूटा रहे, इस पर आश्रित रहे और गुलाम मानसिकता में जीना सीख ले. यहां तक कि गुलामी के दिनों में भी समाज के मामलों में राज्य का इतना हस्तक्षेप नहीं था, जितना स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक भारत में बढ़ता चला गया. अब तो समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया गया है और राज्य ही समाज का स्थान लेता हुआ दिख रहा है. इसका समाधान इस रूप में देखा गया कि लोकतंत्र को लोक स्वराज की तऱफ मोड़ा जाए. मसलन गांवों में लोक स्वराज का प्रयोग किया जाए. लोक और तंत्र के बीच की दूरी को कम किया जाए. संविधान द्वारा तंत्र संरक्षक की भूमिका में स्थापित है, जबकि इसे प्रबंधक की भूमिका में होना चाहिए था. लोक और तंत्र के बीच बढ़ती हुई इसी दूरी को कम करने का काम देश के कुछ हिस्सों में चल रहा है. ऐसा ही एक गांव है गोपालपुरा. राजस्थान के चुरू ज़िले के सुजानगढ़ के रेगिस्तान में गोपालपुरा गांव विकास की नई कहानी लिख रहा है. 2005 में हुए पंचायत चुनाव में गोपालपुरा पंचायत के तहत आने वाले तीन मजरों- गोपालपुरा, सुरवास एवं डूंगर घाटी के लोगों ने सविता राठी को सरपंच चुना. वकालत की पढ़ाई कर चुकीं सविता राठी ने लोगों के साथ मिलकर गांव के विकास का नारा दिया था. सरपंच बनने के बाद सविता ने सबसे पहला काम ग्रामसभा की नियमित बैठकें बुलाने का किया. एक पिछड़े और ग़रीब गांव के विकास के लिए पांच साल कोई बहुत लंबा समय नहीं होता, लेकिन ग्रामसभा की बैठकें होने से गांव के लोगों में विश्वास जागा कि उनके गांव की स्थिति भी बेहतर हो सकती है.
तीन गांवों को मिलाकर यह पंचायत बनी. गोपालपुरा, सुरवास और डूंगर घाटी. गोपालपुरा में करीब 800 परिवार हैं. सुरवास में 150 और डूंगर घाटी अलग गांव नहीं है, अलग से बस्ती है और इसमें भी 150 परिवार हैं. कुल मिलाकर 6000 की आबादी. ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से हैं. यहां पंचायत का हर काम ग्रामसभा की खुली बैठक में तय होता है.गांव में अब हर तऱफ सफाई रहने लगी है. विकास के काम का पैसा गांव के विकास में लग रहा है. ग़रीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ उन लोगों तक पहुंचने लगा है, जो सबसे ग़रीब हैं. दीवारों पर शिक्षा और पानी को लेकर नारे हर तऱफ दिखते हैं, जो ख़ुद गांव वालों ने लिखे हैं, वह भी बेहद सरल भाषा में. जैसे पानी बचाने के लिए लिखा है, जल नहीं तो कल नहीं. गोपालपुरा पंचायत का नाम आज देश भर में इसलिए जाना जाता है कि वहां की सरपंच सबको साथ लेकर फैसले लेती हैं.
तीन गांवों को मिलाकर यह पंचायत बनी. गोपालपुरा, सुरवास और डूंगर घाटी. गोपालपुरा में क़रीब 800 परिवार हैं. सुरवास में 150 और डूंगर घाटी अलग गांव नहीं है, अलग से बस्ती है और इसमें भी 150 परिवार हैं. कुल मिलाकर 6000 की आबादी. ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से हैं. यहां पंचायत का हर काम ग्रामसभा की खुली बैठक में तय होता है. ग्रामसभा में फैसले होने के चलते लोग ऐसे-ऐसे फैसले भी मान लेते हैं, जो सामान्यत: अगर अफसरों या नेताओं द्वारा लिए जाएं तो कभी न माने जाएं. इसमें सबसे अहम रहा पानी बेचने का फैसला. सरपंच के साथ गांव वालों ने लगकर पानी की कमी पूरी की. पानी के स्रोत ठीक किए गए. तालाबों में पानी बढ़ गया. ज़मीन के नीचे का पानी भी ऊपर उठ आया. इसके बाद पानी का व्यापार शुरू हो गया. राजस्थान में पानी की कमी रहती है. कुछ लोगों ने गांव के तालाबों का पानी टैंकरों में बाहर ले जाकर बेचने का धंधा शुरू कर दिया. इसमें गांव के भी कुछ लोग शामिल थे, लेकिन ग्रामसभा में जब यह मुद्दा उठा तो तय हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी का स्तर ऊपर आया है और गांव का पानी इस तरह बेचा नहीं जाना चाहिए. ग्रामसभा में निर्णय लेकर तालाबों के चारों तऱफ चहारदीवारी बनवाई गई और गेट लगाकर ताले जड़ दिए गए. अब गांव में टैंकर से कोई पानी नहीं उठाता.
हमारे गांव में हम ही सरकार हैं. अपने विकास के लिए पैसा तो हम सरकार से ही लेंगे, लेकिन इन पैसों का इस्तेमाल कहां और कैसे करना है, यह हम ख़ुद तय करेंगे. यानी गांव के लोग ख़ुद तय करेंगे कि विकास कैसे और कहां किया जाना है. राजस्थान के चुरू ज़िले की गोपालपुरा पंचायत की पूर्व सरपंच जब यह बात कहती हैं तो सहसा गांधी का ग्राम स्वराज याद आता है. ऐसा आभास होता है कि गांधी का सपना इस गांव में मूर्त रूप ले रहा है. इस पंचायत ने एक मत से सामूहिक निर्णय लेने की जिस प्रक्रिया का विकास किया है, वह अद्भुत है. यहां की सफलता देश की बाक़ी पंचायतों को आईना दिखाती है. एक संदेश देती है कि आम आदमी की ताक़त के आगे सारी ताक़तें बौनी हैं.गांव में आपस में ख़ूब झगड़े थे. आएदिन लोग एक-दूसरे के ख़िला़फ एफआईआर कराते रहते थे. महीने में एक-दो मामले दर्ज होना सामान्य बात थी. धीरे-धीरे जब ग्रामसभा की बैठकें होने लगीं तो यह मुद्दा भी उठा और आश्चर्यजनक रूप से लोगों के मतभेद कम होते चले गए. गांव में लोग कचरा इधर-उधर फैलाते थे. निर्मल ग्राम योजना का भी कोई फायदा नहीं हो रहा था. तब ग्रामसभा की बैठक में स्वच्छता की ज़रूरत पर भी चर्चा हुई और सब लोगों ने मिलकर कचरा निस्तारण की व्यवस्था की. गांव में राशन की चोरी बंद हो गई है. पटवारी, आशा बहनों एवं आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं आदि सबका ग्रामसभा की बैठक में आना ज़रूरी है. पंचायत भवन में एक रजिस्टर रखा है. अगर किसी को कोई शिक़ायत होती है तो वह उसे इस पर लिख जाता है. पंचायत इस पर कार्रवाई करती है. ज़रूरत पड़ने पर अगली बैठक में भी इस पर चर्चा होती है. गांव में गाय फसल न चर जाएं, इसलिए फसल के दौरान साझा गौचर का काम चलाया जाता है और खेती की रक्षा होती है. इसके लिए किसानों से 5 रुपये से 7 रुपये प्रति बीघा लिया जाता है, जिससे गांव की गायों के चारे की व्यवस्था की जाती है.
सरकार की तऱफ से तय समय पर निश्चित बैठकें तो होती ही हैं, इसके अलावा जब भी कभी पूरे गांव का कोई मसला होता है तो ग्रामसभा की बैठक बुलाई जाती है और उस मसले को हल किया जाता है. औसतन महीने में एक बैठक ग्रामसभा की होती ही है और हर बैठक में लगभग 100-200 लोग आते हैं. शुरू में तो प्रभावशाली और दलाल किस्म के लोग सोचते थे कि महिला सरपंच काम नहीं कर पाएगी, लेकिन जब सविता राठी ने अपना काम शुरू किया, तब लोगों की यह सोच ख़त्म हो गई और आम जनता में विश्वास कायम हुआ ग्रामसभा की बैठकों द्वारा. जनता को लगा कि सविता वाकई हमारे लिए कुछ करेंगी, क्योंकि पंचायत की बैठकों में केवल पंच नहीं, पूरा गांव इकट्ठा होता है, जहां लोगों की समस्याएं सुनकर उनका निस्तारण किया जाने लगा. इससे विश्वास जमा. जब सविता राठी ने कार्यभार संभाला तो पंचायत भवन में कुछ नहीं था. इसके बाद पंचायत घर खुलवाया गया और वहां बैठके शुरू हुईं. लोगों को विश्वास दिलाया गया कि अगर वे आएंगे तो उनकी बात ज़रूर सुनी जाएगी और काम भी होगा. जब विश्वास जमा तो लोग आने शुरू हुए. अगर कोई ऐसा मसला आया भी, जिसमें विवाद उठा तो ख़ुद गांव वालों ने ही एक-दूसरे को समझाया और उसका हल निकला. ग़रीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ लेने के लिए ख़ूब मारामारी रहती है. हर कोई, खासकर प्रभावशाली लोग ग़रीब बनकर इन योजनाओं का लाभ लेना चाहते हैं, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए सबसे अच्छा ज़रिया ग्रामसभा है. ग्रामसभा में लोगों के सामने प्रभावशाली व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि फायदा मुझे मिले. पंचायत की निजी आय भी बढ़ाई गई, टैक्स वग़ैरह लगाकर. निजी आय से भी ज़रूरतमंद लोगों की सहायता की गई. दानदाताओं को भी प्रेरित किया गया. एक दानदाता ने 5 लाख रुपये दिए, ताकि ग़रीब लोगों के मकान बन सकें. सविता राठी कहती हैं कि पंचायतों को टाइड फंड नहीं मिलना चाहिए, अनटाइट फंड मिलना चाहिए. हर जगह की अलग-अलग परिस्थिति होती है और हर गांव में अलग-अलग तरह के जीवनयापन के साधन होते हैं तो योजनाएं भी वहीं के लोग बनाएं. पंचायतों में योजनाएं बनें और सरकार यह सुनिश्चित करे कि सारे फैसले ग्रामसभा की बैठकों में हों. फिलहाल, सविता राठी की जगह नए सरपंच का चुनाव हो चुका है. ख़ुशी की बात यह है कि सविता अभी भी पंचायत के कामों में जुटी हैं और वर्तमान सरपंच को अपनी मदद देती रहती हैं. राठी ने विकास के जो मानक तय किए थे, उन्हें वर्तमान सरपंच भी अपना रहे हैं.
Thursday, December 9, 2010
दून स्कूल के बच्चे ग्रामीणों के लिए स्कूल बना रहे हैं
December 9, Thursday , 2010
ठ्ठ जागरण संवाददाता, देहरादून देहरादून से 20 किमी दूर डांडापुर गांव में आजकल दून स्कूल समेत चंडीगढ़ और जयपुर के नामी स्कूलों के छात्र तीन कमरों वाला स्कूल बना रहे हैं। सुख सुविधाओं में पल-बढ़ रहे बच्चों को मिट्टी व पत्थर ढोने से गुरेज नहीं। वे यहां के गरीब बच्चों को क, ख, ग का ज्ञान भी दे रहे हैं। दून स्कूल ने 2003 में डांडापुर गांव में एक कमरे का स्कूल बनाया था, जिसमें आज 173 बच्चे शिक्षा ले रहे हैं। पढ़ाई के लिए जगह कम पड़ी तो दून स्कूल ने फिर मदद को हाथ बढ़ाया और छात्रों के सहयोग से यहां तीन कमरों का स्कूल बनाना शुरू किया। चार दिसंबर से यहां पर दून स्कूल, विवेक हाईस्कूल चंडीगढ़ और जयपुर के महारानी गायत्री देवी स्कूल के छात्र-छात्राएं इस काम में पूरा साथ दे रहे हैं। ये विद्यार्थी स्कूल निर्माण के लिए मिट्टी-पत्थर भी खुद ही ढो रहे हैं। कुछ बच्चे श्रम दान करते हैं तो कुछ स्कूल के बच्चों की क्लास लेते हैं। नतीजा यह कि गांव के बच्चे भी इंग्लिश शब्दों की मिनिंग बताने लगे हैं। विभिन्न स्कूलों से पहुंचे इन छात्रों का कहना है कि 20-25 साल बाद जब ये बच्चे कुछ बन जाएंगे तो हमारी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। तब शायद हर बच्चे को बेहतर स्कूल और बेहतर माहौल मिलेगा।
Source : http://in.jagran.yahoo.com/ epaper/index.php?location=49/ edition=/pageno=
ठ्ठ जागरण संवाददाता, देहरादून देहरादून से 20 किमी दूर डांडापुर गांव में आजकल दून स्कूल समेत चंडीगढ़ और जयपुर के नामी स्कूलों के छात्र तीन कमरों वाला स्कूल बना रहे हैं। सुख सुविधाओं में पल-बढ़ रहे बच्चों को मिट्टी व पत्थर ढोने से गुरेज नहीं। वे यहां के गरीब बच्चों को क, ख, ग का ज्ञान भी दे रहे हैं। दून स्कूल ने 2003 में डांडापुर गांव में एक कमरे का स्कूल बनाया था, जिसमें आज 173 बच्चे शिक्षा ले रहे हैं। पढ़ाई के लिए जगह कम पड़ी तो दून स्कूल ने फिर मदद को हाथ बढ़ाया और छात्रों के सहयोग से यहां तीन कमरों का स्कूल बनाना शुरू किया। चार दिसंबर से यहां पर दून स्कूल, विवेक हाईस्कूल चंडीगढ़ और जयपुर के महारानी गायत्री देवी स्कूल के छात्र-छात्राएं इस काम में पूरा साथ दे रहे हैं। ये विद्यार्थी स्कूल निर्माण के लिए मिट्टी-पत्थर भी खुद ही ढो रहे हैं। कुछ बच्चे श्रम दान करते हैं तो कुछ स्कूल के बच्चों की क्लास लेते हैं। नतीजा यह कि गांव के बच्चे भी इंग्लिश शब्दों की मिनिंग बताने लगे हैं। विभिन्न स्कूलों से पहुंचे इन छात्रों का कहना है कि 20-25 साल बाद जब ये बच्चे कुछ बन जाएंगे तो हमारी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। तब शायद हर बच्चे को बेहतर स्कूल और बेहतर माहौल मिलेगा।
Source : http://in.jagran.yahoo.com/
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