Sunday, January 9, 2011

यह वक्त है घरवापसी का

Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2387201.cms?prtpage=1

यह वक्त है घरवापसी का
20 Sep 2007, 1802 hrs IST  
सुंदर चंद ठाकुर

अगर आप सरकारी सब्सिडी पर चलने वाले देश के किसी इंस्टिट्यूट से पढ़ाई कर रहे हैं, तो आपको नौकरी के लिए विदेश जाने की कीमत अदा करनी पड़ सकती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय समिति ने सरकार को सुझाया है कि वह ऐसे छात्रों से 'एग्जिट टैक्स' और उन्हें जॉब देने वाली कंपनी से 'ग्रैजुएट टैक्स' लेकर अपने नुकसान की भरपाई करे। हो सकता है भारत सरकार को यह आइडिया पसंद आ जाए, लेकिन क्या अब इस काम के लिए बहुत देर नहीं हो गई? भारत से प्रतिभाओं का विदेश जाने का सिलसिला दशकों से चल रहा है, मगर यह 1990 का दशक था, जब हमने ऐसे मामलों में उफान आते देखा। उनके लिए आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र अमेरिका था। अमेरिका में ड्यूक यूनिवर्सिटी से जुड़े भारतीय मूल के एक रिसर्चर विनोद वाधवा ने हाल ही में एक स्टडी की। इस स्टडी में उनका कहना है कि अमेरिका में 1995 से 2005 के बीच जो इंजीनियरिंग और टेक्निकल कंपनियां खुलीं उनमें से चौथाई को खड़ा करने वाले भारतीय थे। लेकिन यह ट्रेंड अब खत्म हो रहा है, क्योंकि भारतीय प्रतिभाएं वापस भारत लौट रही हैं। काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के पूर्व डायरेक्टर जनरल और प्रख्यात वैज्ञानिक आए. ए. माशेलकर के मुताबिक कुछ साल पहले तक आईआईटी के 70 फीसदी छात्र नौकरी के लिए विदेश चले जाते थे, मगर अब यह आंकड़ा घटकर 30 फीसदी रह गया है। साफ है कि 'ब्रेन ड्रेन' अब 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' में बदल रहा है।

कुछ साल पहले तक शायद ही किसी ने 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' यानी विदेशों में बसे भारतीयों के वापस अपने देश लौट आने की कल्पना की होगी। इसकी उन्हें कोई वजह नजर नहीं आती थी। अमेरिका और यूरोप के देशों में वे बड़ी-छोटी कंपनियों में काम करते हुए खूब पैसा कमा रहे थे। उन्हें साफ-सुथरी आबोहवा, सुख-सुविधाएं, बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा और सबसे बड़ी बात, एक शानदार करियर और एक ग्लोबल स्टेटस हासिल था। भारत लौटकर वे करते भी क्या? गंदगी, करप्शन और पिछड़ेपन में ऐसा क्या था, जो उनका मन मोह लेता। यहां उन्हें कौन 50-50 हजार डॉलर सालाना पगार देता? लेकिन भारत की धड़धड़ाती इकॉनमी इस तस्वीर को बदल रही है। आज यूरोप और अमेरिका से प्रवासी वापस अपनी जन्मभूमि की ओर लौट रहे हैं। जिस बेहतर करियर की तलाश में उन्होंने देश छोड़ा था, आज वह उन्हें भारत में ही दिखाई दे रहा है।

इस 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' की पहली वजह यही है कि अब भारतीय कंपनियां बेहतर पगार, पॉजिशन और काम की बेहतर चुनौतियां पेश करने लगी हैं। भारत में हाई-टेक इकॉनमी के विकास ने ऐसे आकर्षक अवसर पैदा किए हैं, जिन्हें कोई भी लपकना चाहेगा। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को अपनी ग्लोबल समझ का भी फायदा मिल रहा है। कई ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने विदेशों में काम तो किया, लेकिन कामयाबी पाई भारत लौटने के बाद। उन्हें भारत इसलिए भी बेहतर विकल्प लगा क्योंकि यहां एक फैलता हुआ बाजार है और नए विचार आजमाए जा सकते हैं, जबकि विदेशी बाजार अब ठहर चुका है। ज्यादातर अमेरिकी कंपनियां एक रुटीन में चल रही हैं। वे महत्वाकांक्षी कर्मचारियों को नई चुनौतियों की खुराक नहीं दे पा रहीं। इसलिए हर वह भारतीय जो चुनौतियों की तलाश में अमेरिका गया था, अब उनका पीछा करता हुआ भारत लौट रहा है। नैशनल असोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज का अनुमान है कि 2001 में 7000 प्रवासी भारत वापस लौट रहे थे। 2004 तक यह आंकड़ा बढ़कर 10 हजार हो गया। ब्रिटेन के अखबार द टाइम्स के मुताबिक अब तक ब्रिटेन में रह रहे भारतीय मूल के 32 हजार युवा बेहतर करियर की तलाश में भारत लौट चुके हैं।

एक दिलचस्प पहलू यह है कि भारत में अमेरिका या ब्रिटेन की तुलना में सैलरी आज भी बहुत कम है। लेकिन कम सैलरी की भरपाई भारत में उपलब्ध सस्ती सेवाएं और चीजें कर रही हैं। खासकर अमेरिका से लौट रहे प्रवासी भारतीय भारत की पर्चेजिंग पावर पैरिटी (पीपीपी) को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। यही वह फैक्टर है, जिसके चलते प्रवासियों के लिए भारत की राह पकड़ने का फैसला आसान हो गया है। 1993 में जब पहली बार पीपीपी के आधार पर जीडीपी के आंकड़े सामने आए थे, तो भारत के लिए पीपीपी फैक्टर 4.5 आंका गया था। इतने बरसों में यह फैक्टर लगभग स्थिर बना रहा है। इसके मायने हुए कि वस्तुत: भारत की जीडीपी की हैसियत 4.5 गुना कम आंकी जा रही है, यानी पीपीपी के आधार पर एक डॉलर की कीमत 46 रुपये न होकर 10.5 रुपये हुई। इस लिहाज से अमेरिका में डॉलरों में मिल रही सैलरी और भारत में रुपयों में मिल रही पगार के बीच फर्क कम हो जाता है। इस तरह भारत में बनिस्बत कम पगार के भी प्रवासी भारतीय अपनी अमेरिकी लाइफ स्टाइल बरकरार रख सकते हैं।

प्रवासियों के लिए भारत लौटने का एक रास्ता उनकी अपनी ही कंपनियां भी खोल रही हैं। ऐसी कई मल्टी नैशनल कंपनियां हैं, जिन्होंने पिछले बरसों में भारत के बाजार से खुश होकर यहां अपनी शाखाएं खोल ली हैं। ऐसी ज्यादातर कंपनियों ने भारतीय ऑपरेशन संभालने के लिए भारतीय अफसरों को ही प्राथमिकता दी है। विदेशों में अपने भारतीय कर्मचारियों को स्वदेश लौटने का आकर्षक ऑफर देकर उन्होंने निचले स्तरों पर भी कई प्रवासियों को वापस आने का मौका दिया है। इस 'रिवर्स ब्रेन ड्रेन' की वजहों के मूल में कहीं न कहीं अपनी जड़ों से प्रेम भी है। युवा उम्र में विदेश जाने और पैसा कमाने की ललक जोर मारती है, लेकिन मिडिल एज तक आते-आते अपने बूढ़े माता-पिता का खयाल रखने और अपने समाज में रहने की इच्छा बढ़ जाती है। करियर को लेकर कोई समझौता किए बगैर अगर किसी की यह इच्छा पूरी हो रही हो, तो वह भला क्यों पीछे रहेगा।

ऐसे में सरकार को शायद ब्रेन ड्रेन को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं। वह सिर्फ यह सुनिश्चित करे कि देश की इकॉनमी अपनी रफ्तार बरकरार रखे। एग्जिट टैक्स या ग्रैजुएशन टैक्स लगाकर वह अपनी अंटी में जितना पैसा जमा करेगी, उससे कई गुना ज्यादा उसे लौटकर वापस आने वाले इन सपूतों के काम से मिल जाएगा। फिर वह दिन भी शायद दूर नहीं होगा, जब ब्रेन ड्रेन शब्द सिर्फ डिक्शनरी में रह जाएगा।

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